सोमवार, 22 दिसंबर 2014

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 10

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

(पहला अध्याय)

दसवाँ बयान

क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी ऱत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इनसभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हँसी-हँसी में महारानी नेक्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।"

महारानी ने बात छेड़कर कहा, "आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना-जाना बन्द कर दिया! देखिए यह वही वीरेन्द्रहै जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यहपैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहींमालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भीबराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र केसाथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त मेंमैल पैदा कर दिया!"

महाराज ने कहा, "मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये! कौन-सी बात ऐसीहुई जिसके सबब से मेरे दिल से बीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसकेनिकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।" महारानी ने कहा, "देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है?" जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, "खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।"

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तोकाम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअतदी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।

रविवार, 21 दिसंबर 2014

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 9

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय

नवाँ बयान

बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, बीरेन्द्रसिंह को पहुँचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचे। क्रूरसिंह चुनार की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा, "कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?"

नकली अहमद ने कहा, "मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?"

सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा, "अब चुनार गये हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता!"

अहमद ने कहा, "हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊँगा। सीधे चुनार ही पहुँचता हूँ।"

यह कह वहाँ से रवाना हो अपनेखेमे में आये और बीरेन्द्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुँह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह केदरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गये।

महाराज ने मुंशी से कहा, "पूछो, कौन है और क्या कहताहै?"

तेजसिंह ने कहा-"हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊँगा, घर कैसे पहुँचूंगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाये हो? उनको क्या दूँगा! दुहाई महाराज की, दुहाई! दुहाई!!"

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया, "क्रूरसिंह कहाँ है?"

चोबदारखबर लाया-"बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।"

रामलाल (तेजसिंह) दुहाई महाराज की! यह भी उन्हीं की तरफमिल गया, झूठ बोलता है! मुसलमान सब उसके दोस्त हैं; दुहाई महाराज की! खूब तहकीकात की जाय!"

महाराज ने मुंशी से कहा, "तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है?"

थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आये औऱ बोले, "महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गये हैं।"

महाराज ने कहा, "जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्य़ादे को बुलाओ।"

हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मतप्यादे को पकड़ लाया।

महाराज ने पूछा, "क्रूरसिंह कहाँ गया है?"

प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया।

राम लाल ने फिरकहा, "दुहाई महाराज की, बिना मार खाये न बताएगा!"

महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उसबदनसीब ने बतला दिया कि चुनार गये हैं।

महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया-

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घण्टे भर के अन्दर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जायें।
(2) उसका मकान लूट लिया जाये।
(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया रामलाल उठा ले जा सके, ले जाये, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल कियाजाये।
(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाये।

हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुँचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा, "पहले मुझको रुपये दे दो कि उठा ले जाऊँ और महाराज को आशीर्वाद करूँ। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ!"

मुंशी ने कहा, "अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है! ठहर जा, जल्दी क्यों करता है!"

नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया, "दुहाई महाराज की, मेरे रुपये मुंशी नहीं देता।" कहता हुआ महाराज की तरफ चला।

मुंशी ने कहा, "ले लो, जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो!"

रामलाल ने कहा, "हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपये डकार जाता!"

उस पर सब हँस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपये आगे रखवा दिया और कहा, "ले, ले जा!"

रामलाल ने कहा, "वाह, कुछ याद है! महाराज ने क्या हुक्मदिया है? इतना तो मेरी जेब में आ जायेगा, मैं उठा के क्या ले जाऊँगा?"

मुंशी झुँझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के सन्दूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, "उठा, देखें कितना उठाता है?"

देखते-देखते उसने दस हजार रुपये उठा लिये। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहाँ तक कि मुँह में भी कुछ रुपये भर लिये और रास्ता लिया। सब हँसने और कहने लगे, "आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए!"

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह रुपया लिये हुए बीरेन्द्रसिंह के पास पहुँचे औऱ बोले, "आज तो मुनाफा कमा लाये, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाये!"

बीरेन्द्रसिंह ने कहा, "यह तो बताओ कि लाये कहाँसे?"

उन्होंने सब हाल कहा। बीरेन्द्रसिंह ने कहा, "जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया!"

तेजसिंह ने कहा, "मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।"

बीरेन्द्रसिंह ने कहा, "तो इस वक्त कहाँ से लायें?"

तेजसिंह ने जवाब दिया, "तमस्सुक लिख दो!"

कुमार हँस पड़े और उँगली से हीरे की अंगूठी उतारकर दे दी। तेजसिंह ने खुश होकर ले ली औऱ कहा, "परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनार जाऊँगा, देखूँ शैतान का बच्चा वहाँ क्या बन्दोबस्त कररहा है।"

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 8

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय
 

आठवाँ बयान
बीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल-लाल आँखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दाँत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, "खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।" इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पाकी टाँग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहाँ से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और बीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, "चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं!" चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, "हम लोगों के जल्दी चलेजाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहाँ न आयें इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।"

चन्द्रकान्ता : इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा?

तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।

यह कहकर बीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।

चन्द्रकान्ता को बीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ! आँखों में आँसू भर चपला से बोली, "यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है! तुमने क्या खयाल किया?"

चपला ने कहा, "कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय बीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबरमहाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।"

चम्पा बोली, " न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी?"

चम्पा की बात पर चपला को हँसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, "रंग बुरेनजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।" बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराजआते हुए दिखाई पड़े।

देखते ही सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, "इस समयआपके एकाएक आने...!" इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, "कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।" यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।

चन्द्रकान्ता , चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, "देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी? ऐसे शैतान का तो मुँह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।" यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।

हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुँचा जहाँ वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, "चलिए, महाराज ने बुलाया है।" क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराजने क्यों बुलाया? क्या चोर नहीं मिला? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, "महाराज क्या कह रहे हैं?" उसने कहा, "अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।" यह सुनते हीक्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता काँपता हरीसिंह महाराज के पास पहुँचा।

महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, "क्यों बे क्रूर! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है!"

मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आँखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, "मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुँचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।" यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, " बुलाओ नाजिम को।" थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से सेभरे हुए महाराज के मुँह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, "क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुँचाई?" उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, "मैंने तो अपनी आँखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।"

जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, "पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायकनहीं है।"

अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया।जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगरमारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।

क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, "तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ!" नाजिम कहता था-"मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता!" ये दोनों आपस में यूँ ही पहरों झगड़ते रहे।

अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, "हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।"

नाजिम ने कहा, "इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूँ और खबर करने परवह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊँगा।"

क्रूरसिंह ने कहा, "तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और बीरेन्द्रसिंह को अपनी आँखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।"

बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, "चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहाँ है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।"

आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बाँध दो तेज घोड़े मँगवा नाजिम के साथ सवार हो उसीसमय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कहदेना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 7

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय

सातवाँ बयान

अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाये! इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और बीरेन्द्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।

एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनायेंगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।

आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवाकर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आये। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।

क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठकर चन्द्रकान्ता से मिलने तथा तेजसिंह और बीरेन्द्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों बीरेन्द्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुँचाई और कहा, -"बीरेन्द्रसिंह जरूर चन्द्रकान्ता की फिक्र में आया है, अफसोस! इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा। " वह कह क्रूरसिंह से बिदा हो बालादवी* के वास्ते चला गया।

तेजसिंह बीरेन्द्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुँचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल लेकर बीरेन्द्रसिंह के पास लौट आये। यह भी खबर लाये कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनायेंगे।

बीरेन्द्रसिंहः देखो, क्रूर ने चन्द्रकान्ता के बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना!

तेजसिंह: सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चन्द्रकान्ता के महल में न जाकर दरबार ही का हालचाल लूँगा, हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाय तो देखा जायगा।

बीरेन्द्रसिंहः सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चन्द्रकान्ता से जरूर मुलाकात करूँगा।

तेजसिंह: आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।

वीरेन्द्रः जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊँगा।

तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चन्द्रकान्ता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था! एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गये। आखिर तेजसिंह ने कहा, "खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें! जो कुछ होगा देखा जायगा।"

शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गये कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ रात गई होगी जब चन्द्रकान्ता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।
रात अंधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई तरद्दुद न करना पड़ा, पहरे वालों को बचाकर कमन्द फेंका और उसके जरिए बाग के अन्दर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर उधर- निगाह दौड़ा कर देखने लगे।

बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।

चन्द्रकान्ता को देखते ही बीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कंपकंपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर बीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुंघा दिया और होश में लाकर कहा, "देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊँ तब आपको ले चलूँ।" यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, "क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे? क्या इसी का नाम मुरव्वत है? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवाँमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूँगी?" कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बंध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, "बस, इसी को नादानी कहते हैं! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ!"

यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ बीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता बीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।

अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुँचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, "क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो?"

नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।

क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है?

नाजिमः खुलासा बस यही है कि बीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुँच गया और इस समय बाग में हँसी के कहकहे उड़ रहे हैं।

यह सुनते ही क्रूरसिंह की आँखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुँचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, "क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।

क्रूरसिंह ने कहा, "महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊँगा?"

जयसिंह : (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े?

क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।

जयसिंह : (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है?

क्रूरसिंहः बीरेन्द्रसिंह!

जयसिंह : उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है? बीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं?

क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में!

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 6


देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय

छठवाँ बयान

तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर बीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुँह ढांप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। बीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को बीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।

बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट औऱ भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को संभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुँचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने बीरेन्द्रसिंह के केमरे में पहुँचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। बीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, "कहो भाई, क्या खबर लाये?"

तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया औऱ कहा, "यह चिट्ठी है, और यह सौगात है!"

बीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, "सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।

तेजसिंह: इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।
यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, "आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।" देवीसिंह ने कहा, "गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।" आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।

वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुँचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहाँ जाकर तेजसिंह ठहर गये औऱ देवीसिंह से बोले, "गठरी रख दो।"

देवीसिंह: (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह: सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूँ, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह: मैं तुम्हारा ताबेदार हूँ, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।
तेजसिंह: सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बांधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊँ, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।

और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, "इस चेहरे के मुँह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।" देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियाँ, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवां और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहाँ ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले, "मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए!" अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।

अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, "इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुँह में डाल दो।" देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुँह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।

पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर बीरेन्द्रसिंह के पास पहुँचे। बीरेन्द्रसिंह ने पूछा, "अहमद को कहाँ कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी?" तेजसिंह ने जवाब दिया, "एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूँ, आज आपको भी वह जगह दिखाऊँगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।" इसके बाद वह सब बातें भी बीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे बीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।

स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-"हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएंगे।" आखिर बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर बीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।

दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ बीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, "भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।" तेजसिंह ने कहा, "पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूँगा।’

बीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर बीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने बीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।

वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, "भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।" तेजसिंह ने कहा, "आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।" बीरेन्द्रसिंह ने कहा, "नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूँगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।"

तेजसिंह ने कहा, "अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।" इस बात को बीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।

कुछ दिन बाद बीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 5

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय 

पाँचवा बयान

अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुँचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आयी जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अन्दर गया, नाजिम को बँधा-पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आकर बोला, "चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जायें तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।"

नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आये और चलते-चलते आपस में बाच-चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फँस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।

अहमदः भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चम्पा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जायेगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएँगी चम्पा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जायेगी।

नाजिमः ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुँचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चन्द्रकान्ता की लौंडी है सामने से चली आ रही है।

तेजसिंह ने भी जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गये हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।

तेजसिंह जान-बूझकर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोचकर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है?

नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़कर देखा और कहा, "तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो!"

अहमद ने कहा, "किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें, तुम क्या जानती हो?"

केतकी ने कहा, "मैं सब जानती हूँ! तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियाँ नसीब हों! जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किये क्या होगा?"

नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गये और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाय तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।

नाजिम ने कहा, "सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हजारों रुपये इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।"

केतकी ने कहा, "सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूँ। नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो करो।"

तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई! नाजिम ने कहा, "अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।"

केतकीः एक हजार रुपये से कम मैं हरगिज न लूँगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपये मेरे सामने रखो।

नाजिमः अब इस वक्त आधी रात को मैं कहाँ से रुपये लाऊँ, हाँ कल जरूर दे दूँगा।

केतकीः ऐसी बातें मुझसे न करो। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।

नाजिमः (आगे से रोक कर) सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जाकर रुपये ले आते हैं।

केतकीः अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जाकर रुपये ले आओ।

नाजिमः अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जाकर रुपये ले आता हूँ।

यह कहकर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी-खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपये लेने को चला।

नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटुए से निकालकर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दांव बचाकर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बांधकर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते चले गये, यह भी खयाल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाय और पीछा करे।

इधर नाजिम रुपये लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया, क्रूरसिंह ने पूछा, "क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आकर मुझको उठा रहे हो?"

नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चन्द्रकान्ता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहाँ से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपये पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया। क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर उछल पड़ा, और बोला, "लो, अभी हजार रुपये देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ" यह कहकर उसने हजार रुपये सन्दूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।

जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ लेकर वहाँ पहुँचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला। नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुँह से झट यह बात निकल पड़ी कि ‘धोखा हुआ!’

क्रूरसिंहः "कहो नाजिम, क्या हुआ?"

नाजिमः क्या कहूँ, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।

क्रूरसिंहः खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे, अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।

नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 4

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

पहला अध्याय 

चौथा बयान

तेजसिंह बीरेन्द्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, "यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज ने हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे!"

"हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए!"कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, "मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।" यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, "मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता!"

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, "तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, "लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे!" यह कहकर नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए! तेजसिंह ने कहा, "तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।"

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहाँ से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।

तेजसिंह को देख चपला बोली, " क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गयी है?

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंड़ी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी : हाँ काम तो करने गयी थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आयी हूँ।

चपला : ऐसा! अच्छा तूने क्या देखा कह?

नकली केतकी : सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।

सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा, "कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।"

चन्द्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ बीरेन्द्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी बीरेन्द्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है?

आखिर चन्द्रकान्ता ने केतकी से कहा, "हाँ हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?"

केतकी ने कहा, "पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।"

यह कह उठकर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी, "क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ के बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के!"

केतकी ने जवाब दिया, "क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी!"

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गुँथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकी: (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो!

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली, "ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ!"

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और बीरेन्द्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चीठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। बीरेन्द्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ बीरेन्द्रसिंह कभी चीठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ कर चपला शरमा गई और गर्दन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चन्द्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से बीरेन्द्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी-

चन्द्रकान्ता: क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?

तेजसिंह: मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है! अभी उसी दिन तुम्हारी चीठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बन्दोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।

चन्द्रकान्ता: अफसोस! तुम उनको अपने साथ न लाये, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रक्खा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रक्खा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गये हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अन्दर जाने की इजाजात किसने दी थी?

यह कह कर चन्द्रकान्ता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गये और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले, "चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।"

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम! मैंने क्या धोखा खाया! पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा, "जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?" तेजसिंह ने कहा, "क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करतीं या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देतीं, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गये और बहुत शर्मिन्दा होकर बोली, "सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने खयाल न किया!"

तेजसिंह: और कोई क्यों खयाल करता! तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका खयाल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अन्दर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली, "क्या कहूँ, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।"

अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया, "बड़ी ऐयार बनती थीं, कहती थीं हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला!"

चपला झुंझला उठी और चिढ़कर बोली, "चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियाँ न लगाऊँ।"

तेजसिंह ने कहा, "बस तुम्हारी कारीगरी देखी गई। अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।"

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चन्द्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जायेगा।

चन्द्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की कि "दूसरे, तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।"

"बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा!" यह कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चन्द्रकान्ता उन्हें देख रोकर बोली, "क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?" इतना कहते ही गला भऱ आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया औऱ कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबड़ा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत-कुछ समझा-बुझाकर चन्द्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आये। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आये हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा, "तुम लोग पहरा देते हौ या जमीन सूँघते हौ?" इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगाकर! देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ!"

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गये और लगे खुशामद करने-

"देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे ऐसा जहरीला तम्बाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी! देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गये। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।"

नकली केतकी ने कहा, "अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार! जो फिर कभी ऐसा हुआ!" यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गये। डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही है।