सोमवार, 22 दिसंबर 2014

चन्द्रकान्ता (Chandrakanta) - 10

देवकीनन्दन खत्री (Devakinandan Khatri)

(पहला अध्याय)

दसवाँ बयान

क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी ऱत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इनसभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हँसी-हँसी में महारानी नेक्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।"

महारानी ने बात छेड़कर कहा, "आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना-जाना बन्द कर दिया! देखिए यह वही वीरेन्द्रहै जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यहपैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहींमालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भीबराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र केसाथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त मेंमैल पैदा कर दिया!"

महाराज ने कहा, "मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये! कौन-सी बात ऐसीहुई जिसके सबब से मेरे दिल से बीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसकेनिकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।" महारानी ने कहा, "देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है?" जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, "खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।"

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तोकाम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअतदी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।

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